रविवार, 26 जनवरी 2014

तंत्र में हिस्सेदारी के लिए छटपटाता गण

गणतंत्र दिवस/ गोविन्द सिंह
भारतीय गणतंत्र के ६५वें जन्म दिन पर सबसे बड़ा सवाल यही है कि बीते ६४ वर्षों में हमारा तंत्र अपने गण के कितने निकट पहुँच पाया है? वह स्वाधीनता संग्राम के सपनों को कहाँ तक साकार कर पाया है? यहाँ स्वाधीनता संग्राम के सपनों का सन्दर्भ इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि आज जिस गणतंत्र में हम रह रहे हैं, उसकी पूरी परिकल्पना संग्राम के दौरान ही बुनी गयी थी और जिसे बाद में संविधान सभा ने संविधान के रूप में लिपिबद्ध किया था. गणतंत्र का मतलब होता है एक लिपिबद्ध संविधान के तहत स्वशासन. केवल आज़ादी नहीं, अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं के अनुरूप स्वशासन. ऐसा स्वशासन, जो हमारे संस्कारों में युगों-युगों से रचा-बसा हो. उसमें ‘अपने जैसापन’ का गुण होना सबसे महत्वपूर्ण है.
गांधी भारत के लिए ग्राम गणराज्य की परिकल्पना करते थे. वे आजादी का असली अर्थ गांवों की समरसता, आत्मनिर्भरता और लोकतंत्र में जन भागीदारी को मानते थे. उन्होंने कहा, 'मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करूंगा जिसमें छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह अहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उनका योगदान है और उसकी आवाज का यहां महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जहां ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होगा, जहां स्त्री-पुरुष के बीच समानता होगी और इसमें नशे जैसी बुराइयों के लिए कोई जगह नहीं होगी। गांधी जी का सपना कपोल-कल्पित नहीं था. दरअसल वह हजारों वर्ष पूर्व के हमारे ग्राम गणराज्यों के अनुभव पर आधारित था, जिनकी बदौलत भारत वर्ष स्थिर रहा, बचा रहा. चार हजार वर्ष पुराना वैशाली गणराज्य हो या गौतम सिद्धार्थ का कपिल वस्तु हो या मगध का पड़ोसी लिच्छवी गणराज्य, जनता को यह अधिकार प्राप्त था कि वह अपने फैसले स्वयं ले. भलेही तब राजा का पुत्र ही राजा बनता हो, लेकिन जनता से जुड़े फैसले जनता से पूछ कर ही किये जाते थे. हमारी परम्परा रही है कि सत्ता के शिखर पर चाहे जो भी हो, गण के स्तर पर समरसता बनी रहती थी क्योंकि कि उसे स्वशासन की स्वायत्तता थी. गण और राज्य के रिश्तों की यही परिकल्पना आजादी के आन्दोलन के दौरान बनी थी. गाँधी जी चाहते थे कि हमारा संविधान इसी सपने के इर्द-गिर्द बुना जाए. पूरी तरह से तो नहीं, हमारे संविधान में इसकी कुछ झलक जरूर दिखी. वह बात अलग है कि हमारे हुक्मरान इसे साकार करने में कामयाब नहीं रहे.
हम यह नहीं कहते कि वे पूरी तरह से विफल रहे, कुछ काम जरूर उन्होंने किये. यही वजह है कि यह गणतंत्र ६४ वर्ष से डटा हुआ है. वरना हमारे साथ आज़ाद हुए देश हमसे बहुत पीछे हैं. बहुत से तो लड़खड़ा रहे हैं. हमने अपने गण को तंत्र से जोड़ने की तमाम कोशिशें कीं. उसे मौलिक अधिकार दिए, वयस्क मताधिकार दिया, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत दिए, आज़ादी और समानता दी, अल्पसंख्यकों को सुरक्षा दी. नियोजित विकास दिया, शिक्षा और स्वास्थय दिया, सामाजिक न्याय दिया, राष्ट्रीय स्तर पर आत्मनिर्भरता दी, वैज्ञानिक और सैन्य तरक्की मिली, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आत्मसम्मान दिया. इसीलिए हम टिके रह पाए. इसी की बदौलत हम आज एक महाशक्ति के रूप में स्थापित हुए हैं. हमारे संविधान ने जो भी रूपरेखा हमें दी, उसी के चलते आजादी का सुफल आज आम जनता को चखने को मिला है.
हाँ, यदि हमारे शासक गांधी जी के सपनों के अनुरूप ग्राम गणराज्य नहीं स्थापित कर पाए हैं, तो उसके लिए वे जिम्मेदार हैं. इसीलिए हमारा गण उसके लिए लगातार संघर्ष कर रहा है. हमने त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था कायम की लेकिन गलती यह हुई कि वह नींचे से न संचालित होकर ऊपर से होने लगी. नतीजा यह हुआ कि ऊपर की भ्रष्ट व्यवस्था नींचे तक पहुँच गयी. सरकार की तमाम विकास योजनायें जिस तरह से हमारे गण को काहिल बना रही हैं, वह इसी का प्रतिफल है. इस गणतंत्र ने लोगों को भौतिक तरक्की जरूर दी है, लेकिन उसे स्वार्थी और आत्मकेंद्रित भी बना दिया है. आज हमारे गण के भीतर से अपने समाज और देश के प्रति अपनत्व गायब हो गया है.  
इसलिए यह जरूरी है कि हमारे नीति निर्माता और उन्हें अंजाम देने वाला तंत्र गणराज्य की मूल भावना को समझें. भगवान् बुद्ध ने कहा था कि जब तक लिच्छवी में स्वशासन रहेगा, जनता की भागीदारी रहेगी, तब तक वहाँ समृद्धि और खुशहाली भी रहेगी. अर्थात गणराज्य की भारतीय अवधारणा में गण की भागीदारी अनिवार्य है. उसी में खुशहाली का राज छिपा है. इसलिए हमारे साढ़े छः दशक के गणतंत्र की सबसे बड़ी कसौटी यही है कि हम कहाँ तक अपने नागरिक को स्वशासन में भागीदार बना पाए हैं? यह ठीक है कि हमने अपने यहाँ संसदीय लोकतंत्र कायम किया. अपने संविधान में तमाम देशों के संविधानों के अच्छे तत्वों को शामिल किया. उस पर चल कर हमारा गण भौतिक रूप से समृद्धिशाली तो बन रहा है लेकिन खुशहाल नहीं. उसे वह तृप्ति नहीं मिल पा रही है, जो उसे मिलनी चाहिए. यही वजह है कि रालेगण सिद्दी या हिवरे बाज़ार या भीकमपुरा किशोरी या स्वाध्याय प्रेरित गुजरात के गाँववासियों के चेहरों पर तो हम तृप्ति का भाव देखते हैं, संमृद्धि के प्रतीक नगरों के लोग अपनी स्थिति से असंतुष्ट नजर आते हैं. खुशी की बात यह है कि आज हमारे नागरिकों में स्वशासन की चाह बढ़ रही है. वे शासन में और बड़ी भूमिका के लिए छटपटा रहे हैं. हमारी राजनीति का बदलता चरित्र इसकी गवाही देता है.
(दैनिक जागरण, २६ जनवरी, २०१४ से साभार) 

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य

मीडिया/ गोविन्द सिंह
पिछले एक दशक में देश में आये परिवर्तनों में एक बड़ा परिवर्तन मीडिया में आया बदलाव भी है. अखबार, रेडियो, टीवी और न्यू मीडिया, सब तरफ जबरदस्त उछाल आया है. हिन्दी का सार्वजनिक विमर्श क्षेत्र जितना बड़ा आज है, शायद उतना कभी नहीं था. यही नहीं भविष्य में वह और आगे बढेगा. हिन्दी का मीडिया न सिर्फ अपने देश में जगह बना पाने में कामयाब हुआ है, बल्कि आज उसकी पहुँच दुनिया भर में है. निस्संदेह इसमें टेक्नोलोजी का बड़ा योगदान है. हिन्दी के अखबार लगातार फ़ैल रहे हैं. उनका प्रसार बढ़ रहा है, उनका राजस्व बढ़ रहा है और सत्ता-व्यवस्था में उसकी धमक भी बढ़ रही है. आजादी से पहले तो हिन्दी की पत्रकारिता विशुद्ध मिशनरी थी और घोषित रूप से ब्रिटिश शासन के खिलाफ थी, इसलिए सत्ता के गलियारों में उसकी पहुँच हो भी नहीं सकती थी, और आज़ादी के बाद भी बहुत दिनों तक वह अंग्रेज़ी की चेरी ही बनी रही. सत्ता केन्द्रों में अंग्रेज़ी पत्रकारिता की ही पूछ होती थी. लेकिन अब वह बात नहीं है. हिन्दी पत्रकारिता को अब के सत्ताधारी नजरअंदाज नहीं कर सकते. टीवी की पहुँच इतनी व्यापक है कि सत्तासीन वर्ग उसके आगे गिडगिडाता नजर आता है. आज वे मीडिया घराने भी हिन्दी में अपना चैनल या अखबार निकाल रहे हैं, जो कभी हिन्दी से नफरत किया करते थे. आजादी के आसपास शुरू हुए अखबार आज देश के बड़े अखबार समूह बन चुके हैं. १९८० के आसपास देश के दस बड़े अखबारों में बमुश्किल १-२ हिन्दी अखबार स्थान बना पाते थे, आज शीर्ष पांच अखबार हिन्दी के हैं, यह हिन्दी की ताकत ही है कि वह बिना किसी सरकारी संरक्षण के तेजी से आगे बढ़ रही है. हिन्दी के ब्लॉग दुनिया भर में पढ़े जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर आज हमारी नई पीढी धड़ल्ले से हिन्दी का प्रयोग कर रही है. जो लोग देवनागरी लिपि में नहीं लिख सकते, वे रोमन में ही हिन्दी लिख रहे हैं. यह हिन्दी का विस्तार ही तो है. हिन्दी के प्रति नरम रुख रखने वाले मौरिशश- फिजी जैसे देशों को छोड़ भी दिया जाए तो यूरोप-अमेरिका में भी भारतवंशियों की नयी पीढी हिन्दी की तरफ आकृष्ट हो रही है. यानी इंटरनेट ने हिन्दी के लिए दुनिया भर के दरवाजे खोल दिए हैं. भलेही अभी उसे बाजार का समर्थन उस तरह से नहीं मिल रहा है, जैसे अंग्रेज़ी को मिला करता है, फिर भी उसका विस्तार किसी भी अन्य भाषा से ज्यादा हो रहा है.
अभी हिन्दी भाषी राज्यों में सिर्फ २५ प्रतिशत लोग ही अखबार पढ़ते हैं. इसकी वजह कुछ भी हो सकती है. हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता बहुत देर में पहुंची है, यहाँ परिवहन के साधन अन्य राज्यों की तुलना में कम हैं,  यहाँ लोगों की क्रय शक्ति कम है, लोगों में जागरूकता कम है, लेकिन सोचिए की जिस दिन ये सारी बाधाएं दूर हो जायेंगी, उस दिन हिन्दी के पाठकों का कितना विस्तार नहीं होगा. आज देश में हिन्दी के १५ करोड़ से ज्यादा पाठक हैं, जबकि अंग्रेज़ी के महज साढे तीन करोड़. यह भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही है कि फिर भी अंग्रेज़ी पत्रकारिता की धमक ज्यादा है. सत्ता का यह अलोकतांत्रिक व्यवहार बहुत दिन नहीं चलेगा. एक दिन हिन्दी पत्रकारिता को उसका देय मिलकर रहेगा.
यानी हिन्दी पत्रकारिता का संसार लगातार फ़ैल रहा है, वह बलवान भी हो रहा है, उससे प्रभु वर्ग डरने भी लगा है, लेकिन उसके स्तर में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है. यह ठीक है कि हिन्दी को शासक वर्ग का समर्थन नहीं मिल रहा है, धनी वर्ग का स्नेह नहीं मिल रहा है, लेकिन हिन्दी की अपनी ताकत भी तो कुछ मायने रखती है, जिसके बल पर वह प्रसार पा रही है. यदि हम अपना स्तर सुधारें तो निश्चय ही उन हलकों में भी हमें सम्मान मिलेगा, जहां अभी हमें हेय दृष्टि से देखा जाता है.
निस्संदेह आज हमारी पत्रकारिता संक्रमण के दौर में है. पिछली सदी के अंतिम दौर में हमें टीवी ने बहुत भ्रमित किया था. तब यह घोषणाएँ हो रही थीं कि हिन्दी की पत्रकारिता कुछ ही दिनों की मेहमान है. टीवी उसे ग्रस लेगा. कुछ अरसा हिन्दी में मायूसी छाई भी रही लेकिन जल्दी ही वह संभल गयी. आज समाचार-टीवी खुद ही भटक गया है. टीआरपी की अंधी दौड़ में वे खुद भी खबरों से बहुत दूर छिटक गए हैं. निहायत अनुभवहीन लोगों के चलते आज उसकी गंभीरता ख़त्म हो चुकी है. उसके प्रति सम्मान ख़त्म होता जा रहा है. जबकि प्रिंट मीडिया फिर से प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है.

इसलिए यह जरूरी है कि पत्रकारिता इस अवसर को लपके और अपने स्तर में सुधार करे. यह तभी हो सकता है, जब पत्रकारिता की पवित्रता को बरकरार रखा जाएगा. पेड  न्यूज बंद होनी चाहिए. इसकी वजह से पत्र और पत्रकार जगत को बहुत शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है. इसके लिए पत्रकारों को ही नहीं, पत्र-स्वामियों को भी आगे बढ़ कर पहल करनी होगी. यह सही है कि पत्र निकालना आज एक महँगा सौदा है, लेकिन यकीन मानिए, यदि आप अच्छा काम करेंगे तो आपको पाठक सर-आँखों पर बिठाएँगे. गांधी जी से बड़ा पत्रकार समकालीन विश्व में कोइ नहीं हुआ. अपनी आत्म कथा में उन्होंने कहा था कि, ‘मैं महसूस करता हूं कि पत्रकारिता का केवल एक ही ध्येय होता है और वह है सेवा। समाचार पत्र की पत्रकारिता बहुत क्षमतावान है, लेकिन यह उस पानी के समान है जो बांध के टूटने पर समस्त देश को अपनी चपेट में ले सकती है.’ यानी एक नए युग के निर्माण का अवसर सामने है. हिन्दी पत्रकारिता आगे बड़े और इस बीड़े को उठाये. 
(कैनविज़ टाइम्स, बरेली के लोकार्पण अंक, २२ जनवरी,१४ को प्रकाशित)  

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

बामुसि के रिटायर होने पर

संस्मरण/ गोविन्द सिंह 

दिसंबर के आख़िरी दिन अर्थात ३१ दिसंबर, २०१३ को बाल मुकुंद नव भारत टाइम्स के वरिष्ठ सम्पादक पद से चुपचाप रिटायर हो गया. और रह रह कर याद आ रहा है उसका लिखा पहला व्यंग्य ‘मुन्ना बाबू के रिटायर होने पर’. तब हम लोग नभाटा, मुंबई में ट्रेनी थे. यह लगभग १९८३ की बात है. वहाँ हमारे चीफ रिपोर्टर श्रीधर पाठक हुआ करते थे. वे पुराने जमाने के पत्रकार थे. शायद मैट्रिक पास थे. तीखी नाक वाले, बड़े गुस्सैल आदमी थे. अपने मातहतों को दबा कर रखते थे. मुंबई का अकेला अखबार होने के नाते तब वहाँ नभाटा की तूती बोलती थी. खासकर हिन्दी भाषी मारवाड़ी समाज में उसकी बड़ी पैठ हुआ करती थी. लेकिन वहाँ के बौद्धिक समाज में उसे खरीद कर पढ़ना एक मजबूरी थी क्योंकि कोई विकल्प नहीं था. अखबार का स्तर भी कोई ख़ास नहीं था. हम जैसे युवा पत्रकार इसे नए जमाने का अखबार बनाना चाहते थे. पर पुराने लोग बदलने को तैयार नहीं थे. नए पत्रकारों के निर्विवाद लीडर राम कृपाल जी हुआ करते थे. विश्वनाथ जी दोनों पीढ़ियों के बीच सेतु थे. नए और पुराने लोगों के बीच हमेशा एक टकराव बना रहता था. उन्हीं दिनों पता चला कि पाठक जी के रिटायर होने का समय आ गया है. कंपनी उन्हें दो वर्ष का एक्सटेंशन पहले ही दे चुकी थी. वह समय भी बीत गया था. इसलिए रिटायर तो होना ही था. पाठक जी पूरी तरह से स्वस्थ थे, लिहाजा वे किसी हाल में इस स्थिति के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. रोज-ब-रोज मारवाड़ी व्यवसाइयों के घर बुलाया जाना, छोटी-छोटी गोष्ठियों की अध्यक्षता करना, फीता काटना, साधूवेला से प्रसाद ग्रहण करना, सम्मान प्राप्त करना, यही उनकी दिनचर्या थी. वे स्वयं ‘आज के कार्यक्रम’ जैसा मामूली कालम बनाया करते थे. शहर में होने वाले इन छोटे-छोटे कार्यक्रमों में उनकी बड़ी दिलचस्पी रहा करती थी. और यह सब टिका था एक अदद चीफ रिपोर्टरी पर. वरना घर और दफ्तर के अलावा उनकी कोई जिन्दगी नहीं थी. इसलिए ऐसे व्यक्ति के लिए रिटायर हो जाने का एहसास ही बड़ा दुखदायी था.
मैं चूंकि एक आज्ञाकारी बालक था, इसलिए वे मुझे बहुत चाहते थे. वे मुझे हर शाम किसी बड़े होटल में भेजते, जहां खाने-पीने की प्रचुर व्यवस्था होती. खबर चार लाइन की बनती. इस तरह की लोकल रिपोर्टिंग में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी. मैं उनसे दूर भागता रहता. बाल मुकुंद स्वभाव से ही नटखट था और अक्सर उसकी बातों में भी व्यंग्य रहता था, बेवजह छेड़खानी की उसकी आदत थी. इसलिए पाठक जी की नज़रों में खटकता रहता था.
तो पाठक जी के रिटायर होने की खबर ने ताज़ा हवा के झोंके की तरह दस्तक दी. बाल मुकुंद को बड़ी क्रिएटिव-सी शरारत सूझी. उसने एक व्यंग्य लिख डाला. बहुत चुटीला. व्यंग्य क्या था, सीधे-सीधे पाठक जी पर हमला था. शाम को कमरे में पहुंचे तो हम दोनों ने उसे कई बार पढ़ा. फिर उसमें से वे हिस्से संपादित कर दिए गए, जिनसे लगे कि यह किसके बारे में लिखा गया है. दो-तीन दिन में उसे कई बार तराशा गया. हम दोनों ने उसे संपादित करने में अपनी पूरी सम्पादन कला लगा दी. इस तरह जब वह परफेक्ट व्यंग्य बन गया तो सम्पादकीय पेज पर छपने के लिए प्रधान सम्पादक राजेंद्र माथुर के पास दिल्ली भेज दिया एयर बैग से. हमने सोचा था कि यदि सेलेक्ट हो गया तो चार-पांच दिन में छपने का नम्बर लगेगा, तब तक पाठक जी रिटायर हो जायेंगे. लेकिन व्यंग्य जैसे ही दिल्ली पहुंचा, वैसे ही छपने के लिए क्रीड हो गया. और ठीक उसी दिन छप गया, जिस दिन पाठक जी रिटायर हो रहे थे. सम्पादकीय पेज वाले व्यास जी, जो शास्त्रीय संगीत के उद्भट समीक्षक थे, को वह समझ में नहीं आया. उन्होंने उसे चुपचाप छाप दिया. लेकिन जब छप गया तो हडकंप मच गया. पाठक जी उस रोज भी निर्धारित समय पर ऑफिस पहुंचे. उनका चेहरा तमतमाया हुआ था. किसी से बोले नहीं. चुपचाप सीट पर बैठ गए. ‘आज के कार्यक्रम’ बनाने लगे. न्यूजरूम में लोग सिर्फ और सिर्फ बाल मुकुंद के व्यंग्य के बारे में ही खुसुर-पुसुर कर रहे थे. सीनियर-जूनियर, किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी पाठक जी के पास जाने की. तभी किसी वरिष्ठ ने उनके पास जाकर विदाई समारोह के बारे में सूचना देने की कोशिश की. बस फिर क्या था! पाठक जी बिफर पड़े. बोले, ‘यहाँ लोग मेरे बारे में व्यंग्य लिख रहे हैं. मुझे मुन्ना बाबू कह रहे हैं...’ फिर बाल मुकुन्द को ललकारते हुए बोले, ‘क्यों बाल मुकुंद जी, आपने मुझे नाली का कीड़ा लिखा?...मुन्ना बाबू नाली के कीड़े थे, नाली में चले गए... यही लिखा ना?’ बाल मुकुंद को काटो तो खून नहीं. मंद स्वर में गिडगिडाया, ‘ये आपके बारे में थोड़े ही लिखा है?’ लेकिन सच यही था कि लिखा गया था पाठक जी के ही लिए. हाँ, जब लिखा गया तब उसके अंजाम के बारे में सोचा नहीं गया था. खैर बात आयी-गयी हो गयी. पाठक जी का विदाई समारोह हुआ. लेकिन पाठक जी फिर कभी ऑफिस नहीं आये.
आज यह कहानी इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि आज बाल मुकुंद स्वयं रिटायर हो गया है. पिछले ३२ साल वह टाइम्स संस्थान से चिपका रहा. मैं या मेरे जैसे और साथी तो बीच-बीच में बहुत उछल-कूद करते रहे लेकिन उसने कभी इधर-उधर नहीं देखा. एकाध बार मौक़ा आया भी, लेकिन वह नहीं गया. हमारे बीच में वही सबसे प्रतिभाशाली था. उसकी भाषा में गजब की तार्किकता थी. हम चार लोगों ने एक साथ टाइम्स ग्रुप ज्वाइन किया ट्रेनी के रूप में, बाल मुकुंद सिन्हा, अनंग पाल सिंह, अरुण दीक्षित और मैं. शायद मैं सबसे कम उम्र का था. अनंग पाल कई साल पहले वीआरएस लेकर बैठ गया, अरुण दीक्षित भी अभी तक नभाटा में विशेष संवाददाता के रूप में जमा हुआ है, शायद वह ५७ के आसपास होगा. मैं पत्रकारिता की दुनिया को छोड़ कर अध्यापन में आ गया हूँ.
रिटायरमेंट से पहले मैंने बाल मुकुंद से कहा, क्यों नहीं टाइम्स ग्रुप में ही दो-एक साल एक्सटेंशन का प्रयास करते. बोला, ‘नहीं, मैं इस नई तरह की पत्रकारिता से ऊब गया हूँ. कुछ सार्थक करना चाहता हूँ.’ अब देखना है कि वह क्या करता है?
मुझे लगता है कि वह एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार है. उसकी पूरी फितरत में ही व्यंग्य छुपा है. मैं उससे हमेशा यही कहता रहा कि उसे बाक़ी सारे काम छोड़ कर व्यंग्य-लेखन करना चाहिए. शुरू में उसने कई अच्छे व्यंग्य लिखे. कई रचनाओं का प्रकाशन-पूर्व का पाठक-सम्पादक मैं रहा. बाद में ‘चौथी दुनिया’ में उसने कुछ अरसा एक व्यंग्य कॉलम लिखा. लेकिन पता नहीं क्यों उसने इसे अपनी स्थायी विधा नहीं बनाया! वह राजनीतिक टिप्पणीकार बनना चाहता था. बौद्धिक बिरादरी में विद्वान् कहलाना चाहता था. तब की पत्रकारिता में यह संभव भी था. उसने टाइम्स फेलोशिप के तहत एक अच्छा काम किया, हिन्दी की पहली शैली पुस्तक लिख कर. यह माथुर साहब का ड्रीम प्रोजेक्ट था, जिसे बाल मुकुंद ने अंजाम दिया. लेकिन हिन्दी के अखबारों ने उसे नजरअंदाज कर दिया. खुद नभाटा में ही निजाम बदलने से उसकी उपेक्षा हुई तो और अखबार उसे क्यों अपनाते?
एक बार धर्मयुग से मुझे कश्मीर समस्या पर एक लंबा राजनीतिक विश्लेषण लिखने को मिला. तब हम ट्रेनी थे. आज कहा और कल लिखकर देना था. मैं लाइब्रेरी में बैठ कर पढने लगा. क्लिपिंग ले आया. रात भर नोट्स बनाता रहा. सुबह लिखने बैठा तो शरीर कांपने लगा. दस्त लग गए. हालत खराब हो गयी. किसी तरह ऑफिस पहुंचा और धर्मयुग में गणेश मंत्री जी को समस्या बतायी. उन्होंने कहा, अब लेख को ड्राप तो नहीं किया जा सकता. भारती जी को बताना भी ठीक नहीं होगा. वे नाराज हो जायेंगे. कोई विकल्प है? मेरे साथ बाल मुकुंद था. बाल मुकुन्द बोला, ‘यह बोलेगा, मैं लिख दूंगा.’ मंत्री जी मान गए. मैंने अपने नोट्स उसे दिए और जो कुछ मैं समझ पाया था, मैंने उसे बता दिया. उसने दो घंटे में बढ़िया लेख तैयार कर दिया. बाद में वह लेख धर्मयुग में दोनों के नाम से छपा. तीन पेज में छपा.
वह कम लिखता पर उसके राजनीतिक विश्लेषण बहुत उम्दा होते. उसकी लेखकीय तार्किकता का कोई जवाब नहीं था. एक बार हिन्दी आन्दोलन पर राष्ट्रपति की असहायता पर उसके लिखे सम्पादकीय की तबके सम्पादक डॉ सूर्यकांत बाली ने बहुत तारीफ़ की. मुझे आज भी उसका शीर्षक याद है: ‘प्राणहीन पन्नों का पहरुआ’. एक बार उसने देश के बौद्धिक माहौल पर रविवार्ता में बहुत सुन्दर निबंध लिखा, ‘गमले में उगे बुद्धिजीवी.’ बाल मुकुंद की विश्लेषण शैली बहुत बेबाक होती थी. सम्पादकीय बैठक में वह अपनी राय भी बड़ी बेबाकी से रखता. लेकिन उसकी तुनकमिजाजी उसके लिए दुश्मन बनाती रहती. फिर शायद हिन्दी में इस सबकी गुंजाइश भी नहीं रही! इसलिए वह धीरे-धीरे उदास हो गया. उसकी प्रतिभा कुंद होने लगी. उसने व्यंग्य तो लगभग छोड़ ही दिया, बाक़ी विधाओं पर भी कलम चलाने में संकोच करने लगा. समय की जरूरत पर या प्रबंधन की मांग पर कभी-कभार कुछ लिख दिया तो लिख दिया, वरना उसकी अपनी पसंद का उसने हाल-फिलहाल कुछ लिखा हो, मुझे नहीं पता. मुझे दुःख इस बात का है कि हिन्दी जगत में  अब बौद्धिक प्रतिभाओं के लिए जगह घटती जा रही है... खैर, बाल मुकुंद को अपनी नई जिन्दगी के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं.