गुरुवार, 27 नवंबर 2014

चुपके-चुपके जर्मन थोपने की साजिश

भाषा विवाद/ गोविन्द सिंह            
अपने देश में कुछ भी संभव है. जो होना चाहिए, वह नहीं होगा. जिसकी दूर-दूर तक कोई संभावना न हो, अचानक पता चलेगा कि वह हो गया. क्यों हुआ, कैसे हुआ, इसका किसी को पता नहीं. देश भर के 500 केन्द्रीय विद्यालयों के 78 हजार छात्रों पर एक दिन चुपचाप जर्मन भाषा थोप दी गयी, किसी को कानों-कान खबर नहीं लगी. केन्द्रीय विद्यालय संगठन और जर्मनी के गोएथे संस्थान ने 23 नवम्बर, 2011 को नई दिल्ली के मैक्समूलर भवन में इस आशय के एक करार पर दस्तखत कर दिए. यहाँ तक कि ‘केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय तक को नहीं बताया गया.’ बस मंत्री महोदय कपिल सिबल को सूचित कर दिया गया. और जिस मंत्रालय से केन्द्रीय विद्यालय की पहली कक्षा में दाखिले और ट्रांसफर-पोस्टिंग तक का पल-पल का हिसाब रखा जाता है, उसे अँधेरे में रखा गया! करार यह था कि छठी से आठवीं तक के विद्यार्थियों को तीसरी भाषा के रूप में जर्मन पढनी होगी. आश्चर्य की बात यह है कि देश भर में चूं तक नहीं हुई. बच्चे तो अबोध हुए, क्या बोलें, अभिभावक भी कुछ नहीं बोले. किसी ने यह नहीं पूछा कि इतनी किताबें और अध्यापक कहाँ से आयेंगे? किसी पत्रकार को यह नहीं सूझा कि अचानक केंद्रीय विद्यालय संगठन को यह जर्मन का भूत कैसे लग गया? जो तमिलनाडु हिन्दी में एक चिट्ठी आ जाने पर आग-बबूला हो जाता है, उसे पता ही नहीं चला कि क्या हो रहा है? केवल संस्कृत के अध्यापक थोड़े-बहुत बेचैन दिखे क्योंकि उन्हें अपनी रोजी-रोटी पर लात पड़ती दिखी. उन्हें भी बाद में ट्रेनिंग के बहाने जर्मनी भेज कर चुप करा दिया गया.
और अब, जबकि २७ अक्टूबर को केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की अध्यक्षता में केन्द्रीय विद्यालय संगठन के संचालक मंडल ने 2011 के जर्मन थोपने वाले करार से हाथ वापस खींचने का फैसला किया है, लोग शोर कर रहे हैं. पूर्व मानव संसाधन मंत्री कपिल सिबल कहते हैं, ‘जर्मन को त्यागना दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि इससे ग्लोबलाइज्ड दुनिया में हमारे बच्चे पिछड़ जायेंगे.’       
अंग्रेज़ी मीडिया स्मृति ईरानी के इस फैसले को जबरदस्ती जर्मन बनाम संस्कृत का विवाद बना रहा है. जबकि विवाद जर्मन बनाम त्रिभाष सूत्र का है, विदेशी भाषा बनाम स्वदेशी भाषा का है. जहां पहले संस्कृत पढाई जा रही थी, वहाँ उसे बहाल किया जाएगा, और जहां त्रिभाषा सूत्र के तहत कोई और आधुनिक भारतीय भाषा पढाई जा रही थी, वहाँ वही पढाई जायेगी. जहां संस्कृत की जगह अरबी-फारसी पढाई जा रही थी, वह भी उसी तरह जारी रहेगी. इसमें कोई विवाद कहाँ है. विवाद तो इस बात में होना चाहिए था कि कैसे आधुनिक विदेशी भाषा के रूप में चुपचाप जर्मन को थोप दिया गया? क्या केवल जर्मन ही आधुनिक विदेशी भाषा है? क्या चीनी (मंदारिन), जापानी, कोरियाई, फ्रेंच और स्पेनिश का कोई महत्व नहीं? प्रसार के लिहाज से देखा जाए तो मंदारिन दुनिया की सबसे बड़ी भाषा है. उसके बाद हिन्दी-उर्दू, फ्रेंच, अंग्रेज़ी और स्पेनिश का नंबर आता है. यदि व्यापार की दृष्टि से देखें तो भी आज जर्मनी की तुलना में चीन, जापान से ज्यादा व्यापार हो रहा है. यदि आवाजाही के लिहाज से देखें तो भी जर्मनी कोई ऐसा देश नहीं है, जहां बड़ी संख्या में भारतीय जाते हों. उससे ज्यादा लोग तो खाड़ी की ओर जाते होंगे. उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए भी वह हमारे युवाओं का पहला गंतव्य नहीं है. अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड कहीं ज्यादा बच्चे जाते हैं. तो ऐसा क्या हो गया कि केंद्र के इस मामूली-से फैसले पर जर्मन राजदूत माइकेल स्टीनर को प्रेस कांफरेंस बुलानी पडी और चांसलर अंगेला मर्केल को जी-20 जैसे महत्वपूर्ण शिखर सम्मेलन के बीच में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से हस्तक्षेप की अपील करनी पडी? इतना हाय-तौबा तो तब ब्रिटेन ने भी नहीं मचाया, जब हिन्दी को संविधान ने राजभाषा घोषित किया. कोई इनसे पूछे कि क्या ये अपने देश के स्कूलों में हिन्दी को अनिवार्य तीसरी मातृभाषा के रूप में पढ़ाएंगे? यह ठीक है कि हमारे युवाओं को आधुनिक विदेशी भाषाएँ आनी चाहिए, लेकिन इसके लिए किसी एक विदेशी भाषा को नन्हे-मुन्नों पर थोपने का औचित्य समझ से परे है. यदि आपको विदेशी भाषा से इतना ही मोह है तो बेहतर होगा कि तमाम जरूरी विदेशी भाषाओं पर पुनर्विचार किया जाए और विद्यार्थियों को इन्हें पढने के विकल्प दिए जाएँ. बेहतर हो कि यह छठी से नहीं कालेज स्तर पर हो.  
दरअसल भाषा का मसला अपने देश में ‘गरीब की जोरू’ की तरह है. आज़ादी के बाद हमारी पाठशालाओं में भाषा को लेकर दोहरी नीति रही. कुछ राज्य सरकारों के स्कूलों में पहली कक्षा से अपनी मातृभाषा और छठी के बाद अंग्रेज़ी और संस्कृत पढाई जाती थी, जबकि कुछ बोर्डों में पहली कक्षा से ही अंग्रेज़ी पढाई जाने लगी. इससे कुछ राज्यों के बच्चे पिछड़ने लगे क्योंकि बाकी सब जगहों पर अंग्रेज़ी का ही बोलबाला था. इस विषमतामूलक व्यवस्था को हटाने और देश में भाषाई समरसता कायम करने के मकसद से 1968 में कोठारी आयोग ने त्रिभाषा सूत्र की सिफारिश की. इसके मुताबिक़ हिन्दी भाषी इलाकों के बच्चों को हिन्दी अंग्रेज़ी के अतिरिक्त एक आधुनिक भारतीय भाषा पढने को कहा गया. इसी तरह अहिंदीभाषी इलाकों के बच्चे अपनी मातृभाषा और अंग्रेज़ी के अलावा हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ें. केरल जैसे कुछ राज्यों ने इसे अपना लिया लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों ने नहीं माना. उन्होंने अमूमन हिन्दी, संस्कृत-उर्दू और अंग्रेज़ी को अपनाया. कुछ राज्यों ने अपना अलग ही फार्मूला निकाला. लेकिन मुख्य बात यह है कि त्रिभाषा सूत्र को 1968 से लेकर 1986 की नई शिक्षा नीति और 1992 के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क तक, सबने अपनाए रखा. और यह सब कांग्रेस के ही शासनकाल में हुआ. इसलिए चिंता की बात यह है कि कैसे राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत नीति को धता बताते हुए केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने इतना बड़ा फैसला ले लिया?
यहीं पर शिक्षा घोटाले की बू आती है. कहा जा रहा है कि जर्मन राजदूत ने ‘हजार स्कूलों में जर्मन’ नामक कोई नीति बनाई है, जिसे वे भारत में लागू करवाना चाहते थे. उन्होंने इसके लिए अपने कुछ भारतीय ‘मित्रों’ को पकड़ा. इसके पीछे जर्मनी के कुछ उच्च शिक्षा संस्थान भी बताये जाते हैं. उनका मकसद है कि जर्मनी के उच्च शिक्षा बाज़ार को गति दी जाए. छठी से आठवीं तक जर्मन भाषा पढ़ चुके कुछ विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए जर्मनी जा सकते हैं. इसीलिए जर्मन सरकार ने इसमें खूब पैसा झोंका. अध्यापक नहीं थे, अन्य शिक्षकों को जर्मन का प्रशिक्षण दिया गया. जर्मन पढ़ा रहे शिक्षकों को जर्मनी बुला कर आवभगत की गयी. सोचने की बात यह है कि आखिर कोई सरकार क्यों किसी और देश के बच्चों पर अपनी भाषा थोपने में इतनी दिलचस्पी लेगी? अच्छा हुआ कि सरकार को समय रहते इस साजिश का पता चल गया और नई पीढी किसी जाल में फंसने से बाख गयी.  

सोमवार, 24 नवंबर 2014

आस्था के डेरे किधर जा रहे हैं?

धर्म-दर्शन/ गोविन्द सिंह
सतलोक आश्रम के बाबा रामपाल ने कानून-व्यवस्था से बैर मोल लेकर अपने आप को तो डुबाया ही, पंजाब-हरियाणा के अन्य डेरों को लेकर भी संदेह के घेरे में ला खड़ा कर दिया है. यही वजह है कि पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट को दोनों राज्यों की सरकारों को ये आदेश देना पड़ा कि वे अपने यहाँ स्थित डेरों का जायजा लेकर एक मुकम्मल रिपोर्ट प्रस्तुत करें. अदालत भी यह देख रही है कि किस तरह से ये डेरे इन राज्यों के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर रहे हैं और अपने आप को राज्य से ऊपर साबित करने की एक नई किस्म की होड़ को जन्म दे रहे हैं. इससे पहले डेरा सच्चा सौदा के बाबा राम रहीम सिंह को अम्बाला की अदालत में पेश करने में जिस तरह से पुलिस-प्रशासन को नाकों चने चबाने पड़े थे और उससे भी पहले २००९ में विएना में डेरा सचखंड के दो बाबाओं पर जानलेवा हमला और एक की हत्या के बाद पंजाब में जिस तरह हिंसक झड़पें हुई थीं, उनसे ये संकेत मिल रहे थे कि पंजाब में सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है. इसलिए देश के इस उत्तर-पश्चिमी हिस्से की सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि पर एक नजर डालनी चाहिए.
दरअसल डेरे आज न सिर्फ पंजाब-हरियाणा, बल्कि समूचे उत्तर भारत की एक सचाई हैं. लगभग पूरे हिन्दी-पंजाबी भाषी समाज पर उनका गहरा असर है. यह ठीक है कि रामपाल या आसाराम बापू जैसे बाबाओं के कारण आज सारे ही डेरे-आश्रम या संत-बाबा कठघरे में आ गए हैं, लेकिन अपने शुरुआती चरण में उन्होंने समाज-जीवन को काफी हद तक प्रभावित भी किया है. वे समाज हित के अनेक काम करते हैं, दलितों, वंचितों और भटके हुओं के जीवन में आशा का संचार भी करते रहे हैं, इसीलिए उनके अनुयायी भी तेजी से बढ़ते हैं. वह बात अलग है कि प्रतिष्ठा के चरम पर पहुँचने के बाद अक्सर उनका पतन शुरू हो जाता है और उनका हश्र रामपाल सरीखा होता है. उत्तर भारत में आज सतलोक आश्रम के अतिरिक्त संत निरंकारी मंडल, डेरा सच्चा सौदा, राधा स्वामी सत्संग (ब्यास), डेरा सचखंड बल्लां, डेरा बाबा बुड्ढा दल, डेरा भानियारवाला, दिव्य ज्योति जागृति संस्थान जैसे बड़े डेरे हैं, जिनके अनुयायियों की संख्या लाखों-करोड़ों में है, तो हर गाँव, हर कसबे में छोटे-छोटे डेरे भी हैं, जिनकी अनुयायी-संख्या १० हजार से एक लाख के बीच है. पंजाब-हरियाणा में कुल दस हजार के आसपास डेरे अस्तित्व में आ चुके हैं. ये डेरे अब पंजाब-हरियाणा की सरहदें लांघ कर उत्तर प्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक पहुँच रहे हैं.     
उत्तर भारत में डेरों का इतिहास ५०० साल से भी पुराना है. डेरा का मतलब है एक तरह का अध्यात्मिक शिविर या अड्डा. शुरू में कोई एक संत या अध्यात्मिक नेता अपने कुछ अनुयायिओं के साथ डेरे की स्थापना करता है. दरअसल भारत में इस्लाम के आगमन के साथ डेरों का भी आगमन हुआ. पीरों-फकीरों ने सबसे पहले अपने डेरे बनाए. पश्चिमी पाकिस्तान में तो ये डेरे आज बड़े शहरों का आकार ले चुके हैं. अपने यहाँ देहरादून शहर भी कभी गुरु का डेरा ही था. असल में सिख पंथ का उद्भव भी एक डेरे के रूप में ही हुआ. सिख पंथ के साथ कुछ और डेरे भी जन्मे. उदासी डेरा, डेरा बाबा राम थमन, नामधारी और नानकसर. ये डेरे सचाई का पाठ पढ़ाते थे. उनका मकसद समतावादी समाज की रचना करना होता था. वे भटके हुए इंसान को बुराई से भलाई के मार्ग पर लाने की कोशिश करते थे. इनके संसर्ग में आने से बहुतों के घर रोशन हुए. बहुतों ने नशाखोरी छोडी, बहुतों ने बुराई का रास्ता छोड़ अच्छाई का रास्ता अपनाया. तिहाड़ जेल में कैदियों को अच्छी राह पर लाने का काम भी इन्होने किया. वे सरकार, राजनीति  और धार्मिक-सांस्कृतिक नेतृत्व की कमियों को पूरा करते हैं. वे गरीब जनता के हितों का बखूबी ध्यान रखते हैं. आपदा के समय उनके स्वयंसेवक मदद के लिए पहुँचते हैं. पंजाब-हरियाणा में ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय हिन्दू या अन्य धर्मों की संस्थाएं भी यह काम कर रही हैं. इसलिए हर डेरे को शक की निगाह से नहीं देखा जा सकता.
लेकिन पंजाब-हरियाणा में डेरों की समस्या कुछ अलग है. पंजाब में कुल १२००० गाँव हैं जबकि ९००० डेरे हैं. ये डेरे आम तौर पर सिख पंथ के समान्तर खड़े हुए हैं. इनमें से ज्यादातर डेरे दलित और पिछड़े वर्गों के हैं. हालांकि सिख पंथ की स्थापना ही जातिविहीन और समतावादी समाज बनाने के लिए हुई थी, लेकिन कालान्तर में यह जातिवाद वहाँ भी उठ खडा हुआ. चूंकि दलित और पिछड़ी जातियों को सिख पंथ में वह जगह नहीं मिल पायी, जिसकी उन्हें अपेक्षा थी, इसलिए उन्होंने डेरे बनाने शुरू कर दिए, जहां उनकी अध्यात्मिक भूख शांत होती है. और देखते ही देखते ये लोकप्रिय भी होने लगे. हाशिए में पडी जमातों ने इन्हें सर आँखों पर बिठाना शुरू कर दिया. अब चूंकि सिख पंथ में गुरु ग्रन्थ साहिब के अतिरिक्त कोई और गुरु नहीं बन सकता, इसलिए जब दलित और पिछड़ी जातियों के संत या बाबा गुरु की तरह उपदेश देने लगते हैं तो तनाव पैदा होता है. चूंकि अब ये जमातें भी आर्थिक तौर पर काफी तरक्की कर रही हैं. इसलिए उन्हें दबाया नहीं जा सकता क्योंकि वे उद्योग-व्यापार में हैं, सरकारी नौकरियों में हैं. साथ ही शिक्षा प्राप्त कर जागरूक भी हो रही हैं. यहाँ भी बड़े पैमाने पर विदेश से धन आ रहा है. तनाव की असली वजह यही है.
लेकिन असली समस्या तब पैदा होती है जब डेरा-प्रमुख अपने को कानून-व्यवस्था से ऊपर समझने लगता है. चूंकि इनके पास अनुयायियों की बड़ी संख्या होती है, इसलिए राजनीतिक दलों को उनमें अपना वोट बैंक दिखाई पड़ता है. हर राजनीतिक दल के लोग, यहाँ तक कि अकाली दल भी, उनके दरवाजे पर हाजिरी बजाते हैं. डेरे के संचालक भी चूंकि अल्पसंख्यकवाद और एक तरह के भय से ग्रस्त रहते हैं, इसलिए बड़े नेताओं के आगमन को वे भी अपने अस्तित्व के लिए शुभ मानते हैं. चूंकि डेरा- प्रमुख कोई बहुत अध्यात्मिक पुरुष नहीं होते, इसलिए वे आसानी से नेताओं के प्रलोभन में आ जाते हैं, उनकी महत्वाकांक्षा जागने लगती है. राजनीतिक संरक्षण मिलते ही डेरे अपने रास्ते से भटकने लगते हैं. वे स्वयं को नियम-क़ानून से ऊपर मान बैठते हैं और वे तमाम काम करने लगते हैं, जिनकी उनसे अपेक्षा नहीं की जाती. यों देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय संस्थाएं भी इसी तरह काम करती हैं, लेकिन पंजाब-हरियाणा में चूंकि आबादी की संरचना कुछ अलग है, इसलिए वहाँ तनाव की स्थिति बनी रहती है.
अर्थात डेरों का मसला काफी पेचीदा और नाजुक है. डेरे जरूर हों, क्योंकि उनका होना कहीं न कहीं समाज के लिए हितकारी  भी है, वे सरकार का हाथ बंटाते हैं, लेकिन उन्हें वोट बैंक के रूप में न देखा जाए. उनकी गतिविधियों पर सरकारों को सख्त निगरानी रखनी चाहिए ताकि वे पथभ्रष्ट न हों. ( हिन्दुस्तान, २५ नवम्बर, २०१४ से साभार)

रविवार, 9 नवंबर 2014

उत्तराखंड में उच्च शिक्षा की बदहाली


उच्च शिक्षा/ गोविन्द सिंह 

उत्तराखंड की कुल आबादी एक करोड़ से कुछ ही अधिक है. फिर भी हमारे पास 19 विश्वविद्यालय और 80 से ज्यादा सरकारी और 300 से ज्यादा निजी महाविद्यालय और उच्च शिक्षा के संस्थान हैं. मात्रा के हिसाब से देखा जाए तो यह तस्वीर बुरी नहीं है. लेकिन गुणवत्ता के लिहाज से देखें तो हालत कुछ अच्छी नहीं दिखती. वर्ष 1973 से पहले हमारे पास एकमात्र पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय था. लेकिन उसकी ख्याति पूरे देश में थी. वह देश में हरित क्रान्ति का अग्रदूत बना. उसके बाद कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालय आये. अल्प संसाधनों के बावजूद उन्होंने देश को अनेक हीरे दिए, जिन्होंने देश-विदेश में नाम कमाया और राष्ट्र-मुकुट की शोभा बने. उन्होंने न सिर्फ अपना नाम किया बल्कि प्रदेश का भी सर ऊंचा किया. इस कालेजों-विश्वविद्यालयों ने देश भर में शिक्षा के मानक कायम किये. घास-फूस के छप्परों और टूटी-फूटी इमारतों से बड़े-बड़े वैज्ञानिक निकले, लेखक-बुद्धिजीवी उभरे और सरहद पर रखवाली करने वाले वीर सैनिक पैदा हुए. अब हमारे पास बहुत से कालेज हैं, विश्वविद्यालय हैं, फिर भी श्रेष्ठ छात्र नहीं निकल रहे. फ़ौज को छोड़ दिया जाए, तो जिस अनुपात में यहाँ से पहले श्रेष्ठ विद्यार्थी निकल कर देश सेवा में जाते थे, अब नहीं निकल पा रहे. पढाई का स्तर निरंतर गिर रहा है. हमारे शिक्षा-मंदिरों से डिग्रीधारी तो हर साल बहुत निकल रहे हैं, पर उनमें कितने वाकई काबिल हैं, कहना मुश्किल है. बावजूद इसके, उच्च शिक्षा में सकल दाखिला अनुपात (जी ई आर) 20 फीसदी के आसपास ही है. पूरे समाज में उच्च शिक्षा को लेकर एक गिरावट साफ़ देखी जा सकती है. सबको शिक्षित करने की हमारी यात्रा अभी बहुत लम्बी है. उच्च शिक्षा की बदहाली के लिए किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. हम सब इसके लिए जिम्मेदार हैं. यह ठीक है कि हमें अपनी सम्पूर्ण आबादी को शिक्षित करना है. लेकिन यह भी देखना है कि जो शिक्षा उन्हें दी जा रही है, वह स्तरीय हो.
ऐसे समय में उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय की भूमिका बढ़ जाती है. मुक्त और दूरस्थ शिक्षा जहां एक तरफ उन युवाओं के लिए सुनहरा अवसर लेकर आती है, जो किसी वजह से अपनी पढाई पूरी नहीं कर पाए या जो दूर-दराज के अभावग्रस्त इलाकों में होने से उच्च शिक्षा से दूर रहे. आज दुनिया भर में दूरस्थ शिक्षा लोकप्रिय हो रही है तो इसीलिए कि यह विद्यार्थी की अपनी सुविधा के साथ और बिना किसी तरह के बंधनों के, शिक्षा हासिल करने का अवसर देती है. एक सचाई यह भी है कि पारंपरिक शिक्षा लगातार महंगी हो रही है. ऐसे में युवा दूरस्थ शिक्षा की ओर आकृष्ट हो रहे हैं.

लेकिन एक बात ध्यान से सुन लें, दूरस्थ शिक्षा न प्रायवेट परीक्षा देने जैसा मामला है और न ही पुराने समय का पत्राचार पाठ्यक्रम. यह पद्धति वैसी ही शिक्षा, बल्कि उससे भी बेहतर शिक्षा शिक्षार्थियों को देने का वचन देती है, जो पारंपरिक क्लास-रूमों में दी जाती रही है. ब्रिटेन के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में वहाँ की ओपन यूनिवर्सिटी भी शामिल है तो यूं ही नहीं है. वहाँ ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज की टक्कर का शोध होता है. आज दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय भी अपने दूरस्थ शिक्षा विभाग खोल रहे हैं, क्योंकि वे उन होनहार छात्रों तक पहुंचना चाहते हैं, जो किसी कारण उनकी देहरी से दूर रह गए. सचमुच दूरस्थ शिक्षा ने देश-काल की दीवारों को तोड़ दिया है. इसलिए मुक्त और दूरस्थ शिक्षा के बारे में अपने पूर्वाग्रहों को त्यागिए और उसे अपनाकर मजबूती प्रदान कीजिए. (४-५ नवम्बर, २०१४ को देहरादून में आयोजित संगोष्ठी की स्मारिका में प्रकाशित)  

उत्तराखंड: सपने अब भी अधूरे हैं!

राजनीति/ गोविन्द सिंह
अपने देश में 14 वर्ष के काल-खंड का ख़ास महत्व है. इसी अवधि में भगवान् राम चन्द्र ने वनवास पूरा किया और आसुरी प्रवृत्तियों को पराजित कर एक नयी व्यवस्था अर्थात राम-राज्य कायम किया. ऐसा राज्य, जिसमें न भय हो और न भेदभाव हो. यानी 14 वर्ष का काल भलेही थोड़ा-सा लगे पर यदि मन में संकल्प हो तो क्या नहीं किया जा सकता! उत्तराखंड राज्य भी आज 14 वर्ष पूरे कर 15वें वर्ष में कदम रख रहा है. लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि हमने अपने मकसद को पा लिया है? निश्चय ही राज्य प्राप्ति की लड़ाई भी कोई कम नहीं थी. रामपुर तिराहा काण्ड की याद करते ही आज भी पूरा वजूद ही सिहरन करने लगता है. तब लगता था कि संघर्ष की आग से तप कर निकले लोग बेहतर शासक सिद्ध होंगे, उत्तरांचल के रूप में अलग हुआ भू-भाग तरक्की करेगा और यहाँ के लोग खुशहाल होंगे. नरेन्द्र सिंह नेगी की कुछ पंक्तियाँ हैं:
ये दौर जुल्म का बदलेगा,
निखरेंगे दिन-रात देखना
भूगोल पहाड़ों का बदलेगा,
बदलेगा इतिहास देखना.


गिरीश तिवारी गिर्दा ने नए राज्य की परिकल्पना कुछ यों प्रस्तुत की थी:
जै दिन नान-ठुलो नि रौलो, जै दिन त्यर-म्यरो नि होलो
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जै दिन चोर नि फलालि, क्वैके जोर नि चलोलो
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में (कोरस)
राज्य मिल गया, देखते ही देखते 14 वर्ष भी बीत गए लेकिन क्या वह सब मिला, जिसकी परिकल्पना की गयी थी? क्या वैसी व्यवस्था कायम हो पाई? क्या गरीब जनता को कुछ हासिल हुआ? क्या महिलाओं के अपमान का बदला लिया गया? क्या भ्रष्टाचार- भाई-भतीजावाद से मुक्ति मिली? शायद नहीं. खुद हमारे नेता ही कह रहे हैं, ‘उत्तराखंड में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है, इससे तो हम उत्तर प्रदेश में ही भले थे!’ 
ऐसा नहीं है कि नया राज्य बनने के बाद यहाँ कुछ हुआ ही नहीं. बहुत कुछ हुआ भी है. मैदानी इलाकों में उद्योग-धंधे शुरू हुए हैं. विकास दर बढ़ी है, गांवों में बिजली पहुंची है, शहरों का विस्तार हुआ है, स्कूल-कालेजों का जाल फैला है, 108 नंबर सेवा शुरू हुई है, पहाडी युवक अब दिल्ली-लखनऊ के ढाबों में बर्तन नहीं मांजते, वे पहाड़ों में ही जीप दौड़ा रहे हैं. गाँव-कस्बों तक अंग्रेज़ी स्कूल खुल गए हैं, गाँव-गाँव तक सड़कें पहुँच रही हैं. ग्राम-प्रधान से लेकर गाँव के बेरोजगार युवक तक सब ठेकेदारी करने लगे हैं. पाथर वाले घरों की जगह लेंटर वाले मकान बन रहे हैं, घर-घर टीवी-मोबाइल पहुँच रहे हैं. अब पहाडी बहुएं अपने परदेशी पिया के वियोग में न्योली नहीं गातीं, मोबाइल नंबर मिला कर बात कर लेती हैं. शादी-व्याह में ब्यूटी पार्लर का चलन बढ़ रहा है. लोग अब छपेली की तान पर नहीं, डीजे पर बजने वाले पंजाबी भांगड़े पर थिरकते हैं. खेती सिकुड़ रही है, व्यापार फल-फूर रहा है. जी हाँ, यदि विकास इसी को कहते हैं, तो हमारा उत्तराखंड खूब विकास कर रहा है.
लेकिन इस विकास के लिए हमने नहीं लड़ी थी अलग राज्य की लड़ाई. इस तरह का विकास तो हर राज्य के हर कोने में हुआ है. इसमें हमारी  सरकारों का क्या योगदान है? यदि पृथक राज्य बनने के बाद आये बदलाव का आकलन करें तो सबसे बड़ा परिवर्तन पलायन के रूप में दिखता है. यों तो पलायन हमारे पर्वतों की त्रासदी शुरू से ही रही है, लेकिन राज्य बनने के बाद इसमें कई गुना तेजी आयी है. सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि वर्ष 2000 के बाद ही कोई 1700 गाँव पूरी तरह से उजड़ चुके हैं और इतने ही आधे बंजर हैं. अब खेती कोई नहीं करना चाहता. गाँव की जिस जमीन की कीमत 20 साल पहले एक लाख रुपये थी आज शून्य है. समर्थ लोग हल्द्वानी, रामनगर या कोटद्वार की तरफ सरक रहे हैं. जबकि शहरी जमीन आसमान छू रही है. गाँव के जो स्कूल बच्चों के शोरगुल से गुलजार रहते थे, आज वीरान हैं. इक्का-दुक्का बच्चे जो आते भी हैं, वे मिड दे मील खाकर भाग जाते हैं. अध्यापक खुश हैं कि पढाना नहीं पड़ रहा. यूं भी वहाँ कोई रहना नहीं चाहता. रहे भी क्यों? जब सारी सुविधाएं शहरों में ही केन्द्रित हैं तो गाँवों में, दुर्गम पहाड़ों में कोई क्यों रहे? अपनी ही भूमि से ऐसा मोह-भंग पहले कभी नहीं देखा.
लोग कहते हैं कि नए राज्य का सबसे ज्यादा फायदा नेताओं-ठेकेदारों और ब्यूरोक्रेटों ने उठाया है. हमारे प्रजातंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी शायद यही है कि उसने गाँव-गाँव में ठेकेदारों की फ़ौज खडी की है. इस प्रथा ने गाँव के अंतिम व्यक्ति तक को भ्रष्ट बना दिया है. क्योंकि गाँव का ही ठेकेदार गाँव के ही मजदूर को बिना काम किये आधी मजदूरी पर दस्तखत करवाते हैं, इस तरह उस मजदूर को भी भ्रष्ट बना रहे हैं. बड़े स्तर के भ्रष्टाचार की बात हम नहीं करते. राज्य के विधान सभाध्यक्ष तक इस राज्य में फैले भ्रष्टाचार का दर्द बयान कर चुके हैं.
दुखद पहलू यह भी है कि राज्य बनने से हमारे प्रदेश का अति राजनीतिकरण हुआ है. यहाँ हर आदमी नेता है. हर आदमी मुख्यमंत्री पद का दावेदार है. जो पहले ग्राम-प्रधान नहीं बन सकता था, वह मंत्री बन जाए तो नयी पीढी को वही रोल मॉडल दिखाई पड़ता है. इसलिए राजनीति की प्रयोगशालाओं (छात्र संघों) में अब जबरन वसूली और ठेकेदारी के गुर सिखाये जाते हैं. मेहनत के रास्ते पर कोई नहीं चलना चाहता.     
हमारी 14 बरस की कुल जमा यात्रा कोई सुकून नहीं देती. गंभीरता से देखने पर लगता है कि हम सचमुच पीछे की ओर जा रहे हैं. एक खुशहाल पहाडी राज्य का सपना अब भी अधूरा है. (दैनिक जागरण, हल्द्वानी, नौ नवम्बर, २०१४ से साभार)