शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

अति राजनीति वर्जयेत

राजनीति/ गोविन्द सिंह
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की घटना ने देश की शिक्षा व्यवस्था के सामने एक बड़ा प्रश्नचिह्न यह लगा दिया है कि विश्वविद्यालयों का राजनीतिकरण कहाँ तक उचित है? छात्रों को किस हद तक राजनीति का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? जैसा कि जेएनयू के साथ हुआ, क्या किसी ख़ास विश्वविद्यालय में ख़ास तरह की राजनीति की दीक्षा दी जानी चाहिए? मसलन किसी विश्वविद्यालय में केवल वाम पंथ ही पढ़ाया जाए और किसी में केवल दक्षिणपंथ? किसी में मध्यमार्गी कांग्रेसी विचारधारा की शिक्षा दी जाए तो किसी में समाजवादी विचारधारा की? यानी हर राजनीतिक दल अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए अपना अलग विश्वविद्यालय स्थापित कर ले? यह भी देखना चाहिए कि इसके क्या नतीजे निकलेंगे?    
विश्वविद्यालयों में आज जिस तरह की राजनीति दिखाई पड़ती है, उससे नकारात्मक तस्वीर उभरती है. जिन विश्वविद्यालयों में छात्र व्यावहारिक राजनीति का पाठ पढ़ते थे, वहाँ तो बुरा हाल है ही, जहां वैचारिक राजनीति की दीक्षा मिलती थी, वहाँ भी पतन ही हुआ है. वैचारिक राजनीति का प्रतिनिधि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय है तो व्यावहारिक राजनीति के प्रतीक देश के अन्य विश्वविद्यालय. व्यावहारिक राजनीति सिखाने वाले विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति का पतन कुछ पहले शुरू हो गया था, जहां छात्रनेता पढ़ाई छोड़ कर ठेकेदारी करने लगे थे. उनका गठजोड़ आपराधिक गिरोहों से होने लगा था. इस बात को लिंगदोह समिति ने भांप लिया था और इसीलिए उस पर नकेल कसने के पर्याप्त इंतजाम कर दिए थे. वामपंथी विचारधारा का गढ़ होने के बावजूद जेएनयू की छात्र राजनीति को तब तक आदर्श ही माना जाता था. क्योंकि वहाँ के छात्र संघ चुनाव वैचारिक बहसों के बीच लडे जाते थे. इसलिए लिंगदोह ने जेएनयू की चुनाव प्रणाली को आदर्श बताया था. लेकिन जैसे-जैसे प्रमुख वामपंथी दल राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर जाने लगे, वैसे-वैसे जेएनयू की छात्र राजनीति भी दिग्भ्रमित होने लगी. वामपंथी विचारधारा कब अलगाववादी विचारधारा के साथ जा मिली, पता ही नहीं चला. नतीजा सामने है. छात्र संघ अध्यक्ष जमानत पर है, दो लड़के जेल में हैं. और विश्वविद्यालय के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा हुआ है. विश्वविद्यालय के अध्यापक उबल रहे हैं, राष्ट्रवाद पर बहस कर रहे हैं, लेकिन अब इसका कोइ अर्थ नहीं है. उनकी बहसें लग चुके दाग को छुड़ाने की बजाय और गहरा कर रही हैं.
सवाल यह है कि क्या किसी विश्वविद्यालय का इस कदर राजनीतिकरण कर दिया जाए कि वह किसी ख़ास राजनीतिक विचारधारा का प्रतीक बन जाए? यह प्रवृत्ति भारत जैसे लोकतांत्रिक समाज के लिए ठीक नहीं है. किसी भी संस्थान, खासकर सार्वजनिक फंडिंग से चलने वाले विश्वविद्यालय में हर तरह की विचारधारा को पनपने का मौक़ा मिलना चाहिए. स्कूलों से निकल कर विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले विद्यार्थी आम तौर पर राजनीतिक नहीं होते. कैम्पस की छात्र राजनीति के संपर्क में आने के बाद ही वे उस दिशा में प्रवृत्त होते हैं. ऐसे में यदि उनके सामने सिर्फ एक ही तरह का विकल्प होगा तो निश्चय ही वे उसी दिशा में आगे बढ़ेंगे. दुर्भाग्य से जेएनयू में दक्षिणपंथ या हिंदुत्व के लिए कोई जगह नहीं रही है. अब चूंकि राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिणपंथी राजनीति का वर्चस्व है, इसलिए यह टकराव स्वाभाविक है. लेकिन यह देश के लिए ठीक नहीं है. इससे जो हवा निकल रही है, वह जहरीली है.
किसी ख़ास विश्वविद्यालय को ख़ास विचारधारा में रंग देने का नतीजा यही निकल सकता था. मसलन आपने एक विश्वविद्यालय खोला, उसमें चुन-चुन कर अपनी विचारधारा के लोग भरती कर दिए. पांच-सात साल तो वे आपके लिए खूब स्वयंसेवक तैयार करेंगे. उसके बाद क्या होगा? दूसरी पार्टी सत्ता में आते ही ऐसे विश्वविद्यालय को निशाना बनाएगी. वह अपने लोग भर्ती करेगी. पुराने लोगों को परेशान करेगी. फंडिंग रोक देगी, हर चीज में पक्षपात होगा. जो विद्यार्थी इस पक्षपात को झेलेंगे, उन्हें आजीवन इसका दंश सालता रहेगा. यह क्रम यूं ही निरंतर चलता रहेगा. विश्वविद्यालय कभी स्वतंत्र विकास नहीं कर पायेगा. ऐसे में किस तरह का देश बनेगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है.
अपने देश में आजादी के बाद शिक्षा को लेकर कोई चिंतन नहीं हुआ. शिक्षा में सुधार को लेकर जो भी आयोग बने, उनकी सिफारिशों को कभी ठीक से लागू नहीं किया गया. छात्र और राजनीति के रिश्ते को लेकर भी कोई चर्चा नहीं हुई. छात्र संगठन जरूर अपने स्तर पर कुछ सोच-विचार करते रहे लेकिन आम तौर पर होनहार विद्यार्थी राजनीति से परहेज ही करते रहे. छात्र संघ चुनावों के दौरान ही थोड़ा-बहुत हो-हल्ला होता रहा. नतीजा यह हुआ कि हर राजनीतिक दल छात्र संघों को अपनी नर्सरी समझने लगे. राजनीति का पतन हुआ तो छात्र राजनीति भी अधोगति को प्राप्त हुई. इसलिए आज देश के परिसरों में राजनीति का परिदृश्य बड़ा ही निराशाजनक है.
कुछ लोगों का कहना है कि संघ को जेएनयू पर हमला करने की बजाय उसके समान्तर एक बड़ी रेखा खींच देनी चाहिए. अर्थात जेएनयू की तर्ज पर अपनी विचारधारा का उससे भी बड़ा विश्वविद्यालय बनाए. लेकिन क्या इससे कोई समाधान निकलेगा? शायद नहीं. क्या इससे रंजिश और नहीं बढ़ेगी? बेहतर तो यही होगा कि किसी भी विश्वविद्यालय को किसी ख़ास विचारधारा का अड्डा न बनने दिया जाए. राजनीति से परहेज भी ठीक नहीं है, और सिर्फ राजनीति ही राजनीति हो, यह और भी खराब है. जरूरत से ज्यादा राजनीति हमारे जीवन में जहर घोल रही है. (दैनिक जागरण, 13 मार्च, 2016 से साभार) 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-04-2016) को अति राजनीति वर्जयेत् (चर्चा अंक-2314) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. विश्वविद्यालयों का राजनीति का अखाड़ा बनना न छात्र हित में है न देश हित में।

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